नव साहित्यकार में अतिथि मेहमानों का स्वागत हैं | नव साहित्यकार में छपी सारी सामग्री का सर्वाधिकार सुरक्षित हैं | डॉ.सुनील जाधव ,नांदेड [महाराष्ट्र]|mobile-०९४०५३८४६७२ या इस मेल पर सम्पर्क करें -suniljadhavheronu10@gmail.com

विजयसिंह ठाकुर की दो कवितायेँ


१] सुनी परते 

क्या कुछ नहीं लिखा जाता 
दिल पे अपने -अपने ?
कागज का पन्ना भर गया 
होता तो बता देते तुमको ,
आग से चलकर आने के बाद भी 
पानी का डर सताएं बैठा हैं हम को |
अपने बच्चे को कैसे बाप दे दे ?
दिल का टुकड़ा दिया नहीं जाता |
हर समय शोर सुनता तो हूँ दुनिया का ?
शोर घर का 'सुनना 'अच्छा नहीं लगता- 
शहर का मन-मुटाव सहा नहीं जाता ,
दूर इतने चले आये हैं 
दिल से भुला नहीं जाता |
मानता हूँ बहुत ऊँची भरी हैं ,उड़ान ,
पर आस्था के पंखो में नहीं हैं 'थकान' |
आज भी घर का आंगन ,
एक नन्हे विश्वास के साथ याद आता हैं |
दिल पर पत्थर रख करके 
जीने से क्या होगा ?
सुनी परते भुलाई तो नहीं जाती ?


 २] अनजाने राही 

हम साथ-साथ हैं दोनों 
जैसे उजड़े जंगल में दो वृक्ष ,
जकड़े हुए अपने-अपने अस्तित्व में 
आनंद के खोज में अजनबी राही बनकर |
धुप और बारिश का अंदाजा नहीं हैं 
आंधी और तूफान में खो गया बचपन ,
एक दूसरों को खोजने में 
साँस-साँस बिखरती चली जा रही हैं ,
समज नहीं पा रहाँ हूँ कि 
किन तारों की खोज में 
हम भटक रहे हैं अनजाने राही बनकर |
रोजमर्रा की जिन्दगी ने श्वासों को रोक रखा हैं ,
सरगम ही उस बासुरी की 
खोज कर सकेगा |
जिसके छेदों से गुजरकर श्वास 
संगीत बना आकाश की 
तारों को अपना ही होगा |
लम्बी सैर पर जो जाना हैं 
अपनेपन में लुट जाना हैं ,
राहीं बनकर दूसरों के ,
आस्था - विश्वास को बनाये रखना हैं |














विजयसिंह ठाकुर ,नांदेड 








टिप्पणियाँ