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प्रेम - विद्रोह - कर्मकाण्ड - दलित विमर्श की कहानी है ! ऐ गंगा तुम बहती हो क्ँयू ?



            कौन कहता है कि हमारे देश का विकास हो रहा है कौन कहता है कि विश्व के नक्शे में भारत विश्व शक्ति के रूप में उभर रहा है देश की सही प्रगति, व्यक्ति और समाज के आंतरिक एवं बाहय विकास से ही संभव हो सकती हैं । जबतक हमारे देश का व्यक्ति और समाज, जाति-पाति, ऊँच-नीच, अनिष्ठ रूढी परंपरा, खोकली मान्यताओं, पाखंड से ग्रसित रहेगा तब तक देश को विश्व शक्ति के रूप में उभरते हुए देखना मात्र व्यंग की चिकोटी ही साबित होगा ।  धर्म, संस्कार, संस्कृति, अनिष्ठ परंपरा, खोकली मान्यताओं के नाम पर आये दिन कितने इन्सानों के आत्माओं को अपमान, घूटन, उपेक्षा, प्रताडना, धूत्कार - धिक्कार के हवन कुंड में बलि चढाया जाता हैं ।  यहॉं न मानव के लिए स्थान हैं और नाही मानव की संवेदना के लिए ।  स्थान है, तो सिर्फ जाति के लिए, वह भी उॅंची - श्रेष्ठ - सवर्ण जाति के लिए ।  जहॉं इन्सान का परिचय - सम्मान जाति से होता है, उस समाज का विकास कैसे हो सकता है ? समाज-व्यक्ति अपने आप को चाहे जितना सभ्य कह ले पर
वह तब तक सभ्य नही हो सकता जब तक वह भीतर से मानव को मानव न समझे,उसकी संवेदनाओं को महसुस ना करें।
            आज मानवों के संवेदनाओं की लाशों पर बैंठे उॅंचे वर्ग के धर्म - जाति के ठेकेदार अपने ही प्रगतिशील विचारों वाले कलेजे के टूकडों को काटकर फेंकने से नहीं हिचकिचाते ।  जो प्रगतिशील विचारों को लेकर समाज को बदलने की कोशिश करता है, समाज ही उससे बदला लेता है, उसे बहिष्कृत करक के, रिश्ते - नाते रक्त के संबंधो को तोड के, जार - जार रोने के लिए, अपनों से जुदाई का गम सहने के लिए ।  प्रगतिशील विचारों के युवा साहित्यकार विवके मिश्र जी की कहानियॉं मानव संवेदना के सूक्ष्म धरातल पर लिखी गई प्रगतिशील कहानियाँ हैं ।  15 अगस्त, 1970 में उत्तर प्रदेश के झॉंसी में जन्में विवेकजी कवि, कहानीकार, अनुवादक, निवेदक, आलोचक - समीक्षक, पटकथा लेखक बहुआयामी रचनाकार हैं ।
            विवके जी की कहानी ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ  ?’ ऊँचे वर्ग के प्रगतिशील विचारवाले युवक तथा अपमान, अच्छूतपन, शूद्रत्व के कलंक से पीडित दलित युवति की कहानी है, जो विजातिय होकर भी समाज की रूढि परंपराओं, नियमों-उपनियमों, संस्कार-संस्कृति से उपर उठकर प्रेम विवाह करते है । फल स्वरूप उन्हे अपने परिवार से टूटें हुए रिश्ते-नातों का उपहार मिलता हैं।  विवश होकर उन्हे अपने परिवार से अलग रहना पडता है ।  युवक रणवीर अपने ही परिवार से अपमानित, धुत्कारा गया, धकेला गया, लताडा गया है । वहीं युवति प्रतिभा रणवीर के परिवार से न अपनाने के साथ दोहरे अपमान, उपेक्षा, प्रताडना को सहती भीतर ही भीतर कसमसा ने के लिये व्याकुल है ।
            प्रगतिशील विचारोंवाला रणवीर ठाकुर, शुद्र-दलित लडकी प्रतिभा से विवाह करना चाहती है, तब उसके परिवारवाले जो कहते है, वह आज के आधुनिक, विकसित, सभ्य समाज के लिए कतई शोभा नही देता अपितु ऐसी पूर्वाग्रह दुषित मानसिकता को लेकर जीनेवाले घिनोने रूप को ही प्रस्तुत करता हैं । कहानी में रणवीर प्रतिभा से कहता है, ‘‘जब मैंने उन्हे बताया कि मेरे कुलीग है, तो और सवाल दागे गए, जाति ? वर्ण ? कुल ? गौत्र ? मैंने भी बतया दिया तुम विजातीय हो, विजातीय ही नहीं एक दलित परिवार से हो ....... उन्हें तो जैसे साप सूँघ गया । उनकी आनेवाली कई पीढियों की मोक्ष-प्राप्ति संकट में पड गई ।  ठाकुर परिवार का इतिहास, उसकी विरात .....उफ ! इस परिवार में ऐसा पहली बार हुआ है कि उनके कुल के किसी लडके ने अपनी जाति से बाहर की किसी लडकी से शादी करने की बात सोंची है .... एक विजातीय से, वह भी शूद्र !1’’ रूढि परंपरा, इतिहास, मोक्ष-प्राप्ति की जकडन से जकडा समाज आज भी वह उससे मुक्त होना नहीं चाहता है। वह उसी में ही अपने आपको शत-शत कृतार्थ मानता है ।  भले ही किसी के प्राण क्यों न लेने पडे । पर वे उस मानसिक गुलामी को ही स्वतंत्रता मान बैठे है ।  किन्तु जिसे इस गुलामी का अहसास हुआ उसने अपने ही रूढि-पंरपरा से, दुष्ट मानसिकता से ग्रस्त समाज से बगावत कर समाज में नये विचारों की स्थापना करते हुए उसे बदलने की कोशिश की ।  रणवीर का शुद्र प्रतिभा से प्रेमविवाह प्रगतिशील विचारांे को ही आबाद रूप सें प्रवाहित करता हैं ।  रणवीर के ऐसे प्र्रगतिशील विचारों के पिछे संभवतः उन्हके पिता का प्रभाव रहा हैं । क्योंकि उनके पिता ह्रदयनाथसिंह बनारस विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर और प्रगतिशील विचारों के है । जब रणवीर और प्रतिभा ने अपने परिवार के विरोध में जाकर आर्य समाज मंदीर में प्रेम विवाह किया था । तब अपने परिवारवालों को बुलाये जानेपर भी कोई नही आता, सिवाय ह्रदयनाथ सिंह के । हदयनाथसिंह उन्हे केवल आशिर्वाद ही नहीं देने अपितु आशिर्वाद देते हुए वे जो कहते है, वे प्रगतिशील विचारों के ही संवाहक सिद्ध है । ‘‘बहुत कठिन राह चुनी है तुम दोनो ने, पर एक दूसरे का साथ देने के अपने संकल्प को कभी डिगने मत देना । अभी मैं चलता हॅूं । तुम्हारी मॉं को समझाउॅंगा । उनके मानते ही, मैं तुम्हे पत्र लिखूंगा  तुम दोनो घर आना ।’’2 आज समाज को बदलनेवाले नये रक्त को एैसे ही प्रगल्भ - प्रगतिशील विचारों के मानसिक आशिर्वाद और आधार की आवश्यकता हैं ।  जिस कारण इस पगपर अग्रेसर डगमाने वाले कद सहारा पाकर दौड लगाये प्रगतिशील समाज और देश की ओर ।
            जिस प्रकार समाज ने समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए वर्ण व्यवस्था की स्थापना की थी । पर आगे चलकर कर्म - जाति में परिवर्तीत हुआ ।  ब्राम्हण, क्षेत्रिय, वैश्य का सारा भार सम्हालनेवाले शुद्रों को विभित्स, घृणित, बदबूदार काम करना पडा, उनके तनसे छूटनेवाली दुर्गंध के कारण उन्हे अपने से दूर कर दिया ।  यदि वे उनका घृणित, विभित्स, बदबूदार काम नहीं करते तब क्या होता उन्होने ही वातावरण को हमेशा शुध्द और निरोगी रखने में मद्द की थी । वे तो शुध्दता के दूत शूद्र है । तब वे आज साफ-स्वच्छ-निरोगी रहने के बाद भी उपेक्षा, प्रताडना, अपमान का शिकार क्यों बनते है ? उन्हें निरर्थक-व्यर्थ क्यों समझा जाता है ? समाज का यह हिस्सा जो शूद्र, दलित कहलाता है, वह तो आजीवन भोगता आया है। पर उॅंची समझी जानेवाली जाति में भी, उन्हके ही लोगों के अग्निदाह करते समय चिता में शरीर के साथ भेदभाव किया जाना यह कैसी मानसिकता है इस पर हम हॅंसे या शोक प्रकट करंे इकीसवी सदी में विज्ञान, तकनिक, कम्युटर, सूचना, इंटरनेट की दुनिया में जी रहा इन्सान ये कौनसे काल में जी रहा है क्यों नही वह पूवग्रह दूषित ब्राम्हणी बिजनस माईंड को समझता हैं ? वे इसे बदलने ही नहीं देंगे भले ही उन्हे अपने प्राणों की या दूसरो के प्राणों की बली क्यों न देना पडे ।  इन्सान यदि पुरी तरह से आधुनिक सोंचवाला बन गया । समाज में से सारी जातियॉं समाप्त हो गई । इन्सान इन्सान को यदि इन्सान समझकर सम्मान, देने लगा । संवेदनाओं को यदि प्रकट करने लगा तब इनके पेट का क्या होगा ? जो पोंगा पंडितों, पूर्वाग्रह दुषितों के आय का एक मात्र जरिया हैं ।  कहानी में जब रणवीर के पिता और प्रतिभा के ससुर का ह्रदयगति रूकने से देहांत हो जाता है। तब उनके लिए जो चिता बनायी जाती है, वह उनके कद से छोटी चिता होती हैं । जिसपर उनके पैर लटकते हुए दिखायी देते हैं ।  उस दृश्य को देखकर बनारस के गंगा घाट पर खडी प्रतिभा सोचने लगती है, ‘‘इतनी छोटी चिता पर इतने बडे व्यक्ति के शव को कैसे लिटाया जा सकेगा ?  .... उनके पैर घुटने से मुडे हुए चिता से बाहर लटक रहे थे । उनके शरीर को धीरे धीरे ढका जाने लगा।’’3
            ‘‘एक पैर कटकर जमीन पर खिसक गया । दूसरा भी टूटकर जमीन पर गिर पाता कि अंतिम क्रिया कर रहे रणवीर के भाई ने दो लम्बे बांसो की कैची बनाकर पैंरों को पकडा और एक - एक चिता में झोंक  दिया ।’’4
            चिता पर भी शरीर के साथ किया हुआ भेदभाव किसे अभिव्यक्त करता है पूरे शरीर के जलने के बाद ही पैरों को जलाया जाता है । जिस पैरो ने जिंदगी भर शरीर की सारी इच्छाएँ पुरी की । उसे अपने हर मंजील तक पहुंचाया । उसके सुख - दुखों में सबसे बडा आधार बना । उसी पैर के साथ ऐसा भेदभाव, उपेक्षा, अपमान । पैरो के बिना शरीर की कल्पना मात्र रेंगते हुए घृणित कीडे से ही तुलना की जा सकती हैं । इस पर गंगा घाट का ब्राम्हण दलिल देते हुए कहता है, ‘‘पैर जीवन भर धरती पर चलते हैं । ये शरीर का बोझा उठाने के लिए बने हैं । आगे की यात्रा में पैरों की आवश्यकता नही होती ।’’5
            ‘‘एक व्यक्ति को अपने - जीवन में कई प्रकार के कर्म करने होते हैं । वह अपने सिर से ब्राम्हण का कर्म करता है, भूजाओं से क्षत्रिय का, उदर के लिए उसे वैश्य का कर्म करना पडता है । पर पैर ? ये शूद्र है .... इन्हे बाकी शरीर के साथ नहीं जलाया जा सकता ।  जब सिर भुजाएँ  और उदर जल जाता है, जब आत्मा शरीर के मोह से मुक्त होकर अनंत यात्रा पर निकल जाती है, तब बिना स्पर्श किए लकडी की सहायता से पैरों को भी अग्नि में डाल दिया जाता है ।’’6 जहॉं शरीर के महत्व पूर्ण अंग पैरों के साथ अछूतों सा व्यवहार किया जाता है, वहॉं समाज के विकास की कामना करना व्यर्थ ही सिध्द होगा ।  पैरांे के साथ किये जानेवाले शुद्रो से व्यवहार के कारण हजारो सालों से जी रहे, दलित मानसिकता, उपेक्षा, अपमान, अछूतपन की जिंदगी जी रही प्रतिभा को यह अहसास नया तो नही था, पर ऐसा उसने पहली बार ही देखा था ।
            अपने ससुर के अंतिम संस्कार के लिए अपने पति रणवीर और पुत्र आशिष के साथ आयी प्रतिभा को देखकर उसे अपमानित करते हुए गंगा तट का ब्राम्हन कहता है, ‘‘शूद्र की छाया भर पडने से वैतरणी पार करने में बाधा पड जाती है ।  भव सागर को पार करना, कोई नदीं नाला पार करना नही है ।  उसे पार करने के लिए कोई पुल, कोई गाडी, कोई साधन नही है, सिवाय अपने धर्म पालन के, सारे कर्मकांड पुरे करने के ..... और अंतिम संस्कार यह तो वह संस्कार है जिसमें रत्तीभर चूक से व्यक्ति की आत्मा युग-युगान्तर तक प्रेतयोनि में भटकती रहती है, फिर पुरे ब्रम्हाण्ड में कोई उसे वैतरणी पार नहीं करा सकता ।  कोई उसे मोक्ष नहीं दिला सकता । यह तो इसी स्थान की महिमा है, जहॉं इतने विधि - विधानपूर्वक यह संस्कार संभव है ।’’7  उस गंगा घाट पर नजाने कितने पाखंडी व्यर्थ के कर्मकाण्ड का भय दिखा कर, लोगों को ठगकर उनकी पुश्त - पुश्त की मानसिकता को गुलाम बनाया जा रहा है ।  साथ ही प्रतिभा जैसे शूद्र, अछूत, दलितों के अरमानों का गला घोटकर अपमानित, प्रताडित कर अपने स्वार्थ की रोटी को सेका जाता है । और छोड दिया जाता हैं, उन्ह दलितों को अनंत घूटन भरी जिंदगी जीने के लिए । प्रतिभा उस अपमान से भीतर तक घायल होती है ।  वह उस अपमान को सह नही सकती ।  वह उस घाट को पोछ पोछ कर धोना चाहती है, जिस कारण वह अशूध्द हुआ था ।  उसके भीतर क्रोध की आग भी फुट पडती है कि यह गंगा चुपचाप सबकुछ देखकर हजारों सालांे से निर्लिप्त बह रही है । वह इस अनिष्ट, थोथी संस्कृति और संस्कार को क्यों नही मिटाती ।  वह भी मिटाना चाहती है पर वह कुछ नही कर सकती सिवाय मस्तिष्क के भीतर उठनेवाले विचारों के उथल पुथल के ।
            ‘‘हॉं, मैं शूद्र हूँ । शूद्र माने पैर ..... सभ्यताओं के पैर, जिन पर चलकर पहुंची  है यहाँ तक ।  वह अपने हाथों से पानी उलीच कर धो डालना चाहती थी एक एक घाट ।  वह पछीट - पछीट कर धोना चाहती थी संस्कृतियों और संस्कारों पर पडी धूल, पर वह जैसे जड हो गई थी ।’’8 दलित जाति में पैदा होने का अपमान उसे सहना पड रहा था ।  ऐसे कई अपमान दलित हजारों सालों से सहता आ रहा है । आज हम चाहे जितना आगे बढले पर एक ओर दलित उपेक्षा, अपमान, प्रताडना, सहने के लिहए विवश दिखायी देता हैं । वहीं वह आक्रोश भी प्रकट करता हुआ दिखायी देता है ।
            कहानी में प्रतिभा को अहसास होता है कि उसके ससुर के पैर बिना धड के चिता से उसकी और चले आ रहे है ।  मानो वे कह रहे हो कि मैंने समझ लिया है, दलितों के दर्द का अहसास, मैं तूम्हारे साथ हूँ  तूम आगे बढना ।  साथ ही शूद्रत्व का दर्द मानों प्रतिभा का लगातार पिछा कर रहा हो ।  शूद्रत्व के दर्द से अपमानित प्रतिभा को वे पैर मानो सहानुभूति देने के लिए, आशिर्वाद देने के लिए उसकी ओर चले आ रहे है ।   ‘‘अचानक उसे लगने लगा जैसे लटकते पैर खडे हो रहे है । वे सचमूच ही खडे हो गए । चलने लगे । वे ज्वालाओं के बीच से चले आ रहे है उसकी ओर । पॉंव से उपर न धड दिखायी दें पड रहा है न मुह । मानो वे थे ही नही, ये तो सिर्फ पॉंव ही थे ।’’9   
            वस्तुतः प्रतिभा अपने दलित होने के दर्द, अपमान, पीडा, उपेक्षा के दाग के साथ दुष्ट संस्कृति - संस्कारों वा पडे धूल से बने दाग को मिटाना चाहती हैं ।  वहीं दूसरी ओर रणवीर जैसा प्रगतिशील विचारोंवाला युवक जाति - पाति, छूत - अछूत के बंधन से जकडे समाज और परिवार के विरोध में जाकर विजातीय दलित लडकी से प्रेम विवाह करता है ।  तो गंगा घाट पर चिता पर भी अंतिम संस्कार में भेदभाव वाले रूढि परंपरा, कर्मकांड का भंडा फोडते हुये ओछि मानसिकता से ग्रस्त उन्ह पंडाओें का उपहास उडाता हैं । संक्षिप्त में कहा जाये तो यह कहानी प्रेम, विद्रोह, कर्मकांड और दलित विमर्श की कहानी है ।  कहना असंगत नहीं होगा ।

        लेखक 
  डॉ.सुनील जाधव ,नांदेड
    ०९४०५३८४६७२ 
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