चित्र सौजन्य गूगल
मई का महिना भीषण गर्मी थी | सूर्य कमर कसकर
एक-एक की खबर ले रहा था | उसकी तलवार से भी तेज चमकीली किरने जो भी सम्मुख आता
उसको धुल चटा रही थी | ऐसे में दुपहर के दो बजे सड़क के किनारे एक गाँव का दृश ऐसा
देखा कि मैंने अपनी पानी की बोतल को सिने से लगा लिया | एक बोअर वेल के सम्मुख
कतार बद पानी के बर्तन, घड़े, मटके, बकेट्स रखे हुए थे | उनके मुह बोअर वेल से दस
बार झटके देने के बाद निकल ने वाली पानी की धीमी धारा की ओर , प्यास से लम्बी
प्रतीक्षा में, लम्बे समय से, लम्बे लाइन में अतृप्त बैठे थे |
सरजू का प्यासा घड़ा सबसे पीछे बैठा, नयनो
में पानी से भरा घड़े का सुंदर सपना देख रहा था | बोअर वेल का डंडा कुं-कुं की आवाज
कर रहा था | मानो उसकी जान निकल रही हो | डंडा चलाने वाला और डंडा दोनों की जान तो
निकल ही रही थी | ऐसे में गाँव के घड़े, मटके, बकेट्स के मालिक एक के बाद एक बोअर
वेल से पानी निकाल रहे थे | जिसका बर्तन पानी से भरता उसका चेहरा खुशी से खिल उठ
ता था | मानो उसने कोई जंग जीत ली हो |
सरजू का घड़ा जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा
था, उसके उदास चेहरे पर हर्ष की कलि खिल रही थी | धीरे-धीरे कलि का फूल में
पर्यावसन होना ही था | आखिरकार दुपहर की गर्मी में सरजू के घड़े का नम्बर लग ही गया था | उसने आपना घड़ा बोअर
वेल के नीचे रखा था | उसे अपने झोपड़े में प्यासी बच्ची, माँ, पिता, पत्नी का
चेहरा दिखने लगा था | वे पानी पी रहे हैं
| और सरजू तथा उसका घड़ा उनके चेहरे को प्रसन्न देख कर तृप्त हो रहा है |
सरजू ने बोअर वेल के डंडे को दो-तीन
बार झटका और बोअर वेल के मुह से पानी की बूंदों ने घड़े का स्पर्श किया ही था कि
सरजू के मुख से आवाज आई -
‘’ हे राम !
ये क्या हो गया |’’
बोअर वेल की
चेन टूट गई थी |
डॉ.सुनील जाधव ,नांदेड
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