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अंकोर वाट मैं और हरीश नवल जी [संस्मरण ]



मैंने जंगल के बीचो-बीच लाल फूलों को देख कर कहा था ,
'' प्रकृति ने अपनी माँग में सिंदूर भरा है |''
''वा सुनील जी क्या बात कही आपने ,आप में मुझे भविष्य का सफल साहित्यकार नजर आ रहा है |''
हरीश जी ने स्नेह के साथ कहा था | प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने कहा था |
'' सर,शुक्रिया | आप के ये शब्द मेरा भाग्य बदल देंगे |'' वे मुस्कराने लगे थे |
हम विश्व प्रसिद्ध अंकोर वाट मंदिर ,कम्बोडिया के सबसे ऊँचे और मुख्य मंदिर के एक झरोखे के पास खड़े थे |हमारा परिचय दुबई सम्मेलन में हुआ था |उनके व्यंग से मैं प्रभावित हुआ था | हरीश नवल व्यंग साहित्य में स्थापित नाम है |मुझे इन सम्मेलनों में उनके सानिध्य में रहने का मौका मिला था | मैं आपने आप को खुश नसीब समझता हूँ कि पग-पग पर उनका आशीर्वाद प्राप्त होता रहा | उनके पास से मैंने बहुत कुछ सिखा था  |
          उस दिन जब हम मंदिर पर्यटन कर रहे थे ,तब चलने से पसीना पसीना हो रहे थे | सारे कपड़े लगभग पसीने से भीग चुके थे | सब के चेहरे और उनका हाल देखने लायक थे | हमारा प्राकृतिक स्नान हो चूका था | पर शरीर से पसीने के दवारा पानी बाहर जाने से कमजोरी महसूस हो रही थी | शुक्र था कि हमने पानी की बोतल साथ में ले ली थी | मुझे पता था कि एक बारगी में पानी पी लूँगा तो आगे परेशानी हो जायेगी | सो घूंट -घूंट पानी पीता रहा था | उस समय हरीश जी के पास पानी की बोतल नहीं थी | पानी को बोतल बस में ही रह गई थी | मैंने उनकी और पानी की बोतल आगे बढाई और उन्हें पानी पीने की लिए कहा | उन्हों ने पानी पीया और राहत महसूस करते हुए कहा था |
''अब अच्छा लग रहा है सुनील जी ! अब तरो-ताजा महसूस कर रहा हूँ |''
 उनकी प्रसन्नता से मुझ में भी उत्साह का संचार हुआ था | हम कुछ समय तक उस झरोखे में खड़े रहे थे |कई विदेशी पर्यटक भी वहाँ आकर तस्वीरे निकाल रहे थे | उसमें एक जर्मन था | उसने हमें तस्वीर निकालने के लिए कहा था | हमने बड़े हर्ष से उनकी कुछ तस्वीरें भी खिचीं थी | अब हमे भी लग रहा था कि हम दोनों की कोई तस्वीर खींचे | तब उस जर्मन से हमने तस्वीर खिचवाई थी | सो हमारे तस्वीर का वजन अपने आप ही बढ़ गया था | पहले ही उस तस्वीर में  जानेमाने व्यंग्यकार और उस पर जर्मन फ़ोटोग्राफर | फोटो तो अब मूल्यवान होना ही था | हरीश जी की भाषा में चित्र बहु मूल्य हो चूका था | वे फोटो के लिए शुद्ध हिंदी शब्द ''चित्र ''का प्रयोग किया करते थे | सो चित्र अविस्मरनीय क्षणों में से एक बन गया था | वैसे हम भी अंतर्राष्ट्रीय फोटो गरफार बन गये थे | मैंने जर्मन वाले का तो हरीश जी ने जापानी का चित्र खिंचा था | यहाँ हम ने देखा के विश्व के कई लोग यहाँ आते है | एक दिन का टिकट बीस डोलर था |मंदिर लगभग बरवी सदी में राजा सूर्य वर्मन ने बनाया था | तब से कई आक्रमण हुए थे | विष्णु की प्रतिमा है | दीवारों पर रामायण की कथा उकेरी गई है | आगे बुध्द धर्म के लोगो ने अपना स्थान बनाया था | सो हिन्दू और बुध्द धर्म का यह प्रसिद्ध स्थल है |

            अब वापस लौटना था | ऊँची सीधी सीडियाँ उतरकर नीचे उतरे और वहाँ के कुछ दृशों को भी चित्रों में हमें कैद किया था | कुछ ही क्षणों में वर्षा ने हमे ठंडक पहुंचाई थी | वर्षा की बूंदों ने पसीने से तर्र शरीर को राहत दी थी | मानो प्रकृति ने हमारी अवस्था को जाना था |पर हम ज्यादा तो भीग नही सकते थे | क्योंकि हमे बस में जाकर बैठना था | हमें लगभग दो घंटे का समय दिया गया था | अभी समय तो शेष था पर भीगे कपड़ों के साथ बस में बैठना ..बीमारी कोई आमंत्रित करना था | पहले ही बस में ए.सी.और बाहर से भीगा हुआ तन ...ना रे बाबा | हमने मंदिर के भीतर सहारा लिया था | भीतर से ही पुन: लौटा जा सकता था | इसीलिए हम चल पड़े थे | चलते चलते हमारे कई साथी दार हमारे साथ हो लिए थे | उन साथी दारों का आगले संस्मरण में मैं उल्लेख करूँगा | आगे बढ़ रहे थे | वहाँ के अविस्मरनीय क्षणों को अपनी आँखों में और यादों में बसा लेना था | कुछ तस्वीरों में और कुछ ......उस तरह हमने बसा लिया था | आगे एक कम्बोडियन स्त्री  रेन कोट और छाता बेच रही थी | कई साथियों ने रेन कोट और छाता खरीदा था | मंदिर के बाहर  तो निकला ही था क्योंकि निर्धारित समय पर बस तक जो पहुंचना जो था | बारिश पहले धीमें गति से थी लेकिन धीरे-धीरे वह तेज हो गई थी | कुछ लोगो ने छाता और रेन कोट नही खरीदा था | इसीलिए वहाँ रुकना ही था | उस समय कई मनोरंजक घटनाएँ घटी थी | वह मैं फिर कभी सुनाऊंगा | पानी भीतर मंदिर में भी रिस रहा था | बुँदे हमारे शरीर पर पड़ रही थी | अब तक हम अंतिम दरवाजे पर आ पहुंचे थे | प्रतीक्षा थी तो बस बारिश थम ने की |अब तक हरीश जी ने छाता नही खरीदा था | उन्होंने रंगीन छाता खरीदा था | उन्होंने द्वार के बाहर पहला कदम रखा था |और छाता खोला ही था कि क्या चमत्कार बारिश अचानक थम गई थी | मानो विष्णु जी ने उन्हें यह वरदान दिया हो | जी प्रकार गोवर्धन पर्वत कृष्ण जी ने उठाकर अपने गाँव वालों की रक्षा की थी | लग रहा था कि छाता गोवर्धन और हरीश जी कृष्ण की भूमिका निभा रहे थे | सब अश्चर्य चकित थे | अब हमने लंम्बे-लंम्बे डग भरते हुए मंदिर के प्रवेश के पास आ चुके थे | अब बस की और जाना था |सो स्थानीय रिक्शा ''टूक-टूक ''में बैठ कर बस तक पहुँच गये थे | आगे और भी कई यादे है ...फिर कभी सुनाउँगा | यदि आप को पसंद आये तो अवश्य बताना आप को कैसा लगा संस्मरण पढ़ कर ..| ठीक है मिलते है ..







आपका सुनील जाधव ,नांदेड [महाराष्ट्र]

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