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मेरी कुछ कहानियाँ

  १.प्रायश्चित

 वह अपना घौसला ढूंड रही थी | उसने अपना घौसला बड़े जतन से और प्यार से तिनका-तिनका चुन-चुनकर बनाया था | घौसले के हर एक तिनके में उसका परिश्रम समाया हुआ था | उसने अपने जीवन का एक-एक अमूल्य पल उसके निर्माण में दिया था | आनेवाले नन्ने आहट के लिये, बड़े उत्साह से आनंद और उल्हास के साथ, वह घौसला बना था | उसने कई पेड़ों में से उस पेड़ का चयन किया था | उसने घौसला बनाने के लिये कई पेड़ों को जाँचा था | अच्छी तरह से परखा था | एक-एक पेड़, एक-एक डाली वह देख आई थी | पर उसमें उसे कोई पेड़ रास न आया था | उसने देखा था,... नीम का पेड़, बबुल, बादाम, नारियल, अमरुद, आम, जास्वंद, स्वास्तिक, अनार, करियापाक, सीताफल, रामफल आदि | कई पेड़ों को उसने नकार दिया था | कहीं ज्यादा शोरगुल था | तो कहीं बल्ब का तीव्र प्रकाश था | तो कहीं घौसले के लिए स्थान सुरक्षित न था | पर उसने जिस वृक्ष का चयन किया था | वह सुरक्षित भी था | और रात में उस डाली पर अँधेरा भी रहता था | और शान्ति भी थी | सो उसके होनेवाले बच्चों के नींद में खलल का सवाल ही नहीं पड़ता था | उसने हमारे घर के आँगन में पश्चिम दिशा की और स्थित जामून के वृक्ष का चयन किया था |    ....अधिक पढने के लिए यहाँ चटकारा लगायें 
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 २.वायलिन 

 दक्षिण नांदेड का पुल लाँघ कर कुछ ही किलो मीटर की दूरी पर था | पहाड़ों पर बसा वसरनी गाँव | वसरनी पहुँचने के लिए चहु ओर से सड़के बनाई गई थी | उस दिन वसरनी जल्द पहुंचना था |आकाशवाणी रेडियो पर रेकोर्डिंग का समय दुपहर दो बजे का दिया गया था | मुझे कवि सम्मेलन हेतु बुलाया गया था | मैंने मोंढे से ऑटो पकड़ा और निर्धारित समय पर पहुँचने के लिए निकल पड़ा | ऐसे में मुझे याद आया कि वसरनी में मेरा एक कॉलेज का दोस्त रहता हैं | हमने तहसील किनवट में कॉलेज की पढाई साथ-साथ की थी | वह अच्छा वायलिन वादक था | किनवट से अट्ठारह किलो मीटर की दूरी पर उसका गाँव बोधडी था | वहीँ से वह रोज अप-डाउन करता था | वायलिन ने ही हमे दोस्त बनाया था | मैं सप्ताह में दो-तीन दिन उसके पास वायलिन सिखने के लिए जाया करता था | जब तक मैं कुछ सिख पाता उसे वसरनी में नौकरी लग गई थी | और मेरी वायोलिन सिखने की इच्छा अधूरी रह गई | उसके बाद जब भी हमारी मुलाखात होती | मैं वायलिन को जरुर याद करता था | मैं उसे कहता था ‘’ प्रिय वायोलिन कहाँ हैं |’’ वह घर पर ले जाता ओर मुझे वायलिन दिखाते हुए कहता ,’’ यह रही प्रिय वायोलिन |’’ मैं.....आधिक पढने के लिए पाठ पर चटकारा लगायें 
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   ३. मैं बंजारे का छोरा

 उस दिन मुझे अहसास हुआ था | अच्छुत होने का दर्द क्या होता हैं | दलित, आदिवासी न जाने कब से इस भयानक दर्द को सहते आ रहे हैं | उनके शरीर और मन ने कितनी यातनायें,पीडाओं को सहा हैं | और आज भी सभ्य कहे जाने वाले समाज में वे असभ्यता का शिकार हो रहे हैं | मेरे भी साथ आज से १३ साल पहले अर्थात २००० में ऐसी ही एक घटना हुई थी | जिससे मेरा मन बुरी तरह से आहत हो गया था | उस दिन मुझे भी लगा कि क्या मैं भी अच्छुत हूँ ? मेरे मन में पुन: -पुन: एक ही प्रश्न उठ रहा था | क्या मैं भी अच्छुत हूँ ? उस दिन मुझे बहुत बुरा लगा था | सारा दिन सोचता रहा था | मन को मसोसता रहा था | क्या मैं भी अच्छुत हूँ ? उस दिन सारी रात सो न पाया था | करवटे बदलता रहा ,सोचता रहा | आँखों से मानो नींद ही उड़ गई थी | जब नींद ही नहीं आ रही थी ,तो टहलता रहा था | ऐसा लग रहा था कि किसी ने मेरी शक्ति को छीन लिया हैं | अचानक उत्साही मन, हतोत्साहित हो गया था | मैं अपने आप को उस समय कमजोर महसूस करने लगा था | मैंने सुना था | पढ़ा भी था | पर स्वयं कभी अनुभव नहीं किया था | दलितों पर होने वाले अन्याय और अत्याचार के बारें में पढ़ कर और देख कर शरीर पर कांटें आतें थे | उस दिन मैंने महसूस किया था | दलितों के दर्द को ..| एक छोटी सी घटना से मैं इतना आहत हो गया था | दलितों, आदिवासियों के दुःख, दर्द, पीड़ा के सम्मुख मेरा दर्द तो शून्य भी नहीं था | पर फिर भी बहुत दर्द हुआ था | उस दिन मेरी आँखें नम हुई थी | अपने आप पर दर्द देने वाले से ज्यादा गुस्सा आ रहा था | और घृणा भी हो रही थी |..............आधिक पढने के लिए पाठ पर चटकारा लगायें 

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