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मुक्तिपर्व में शिक्षा, संघर्ष एवं संगठन

यह आलेख प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका '' शुरआत''  में छपा है | जिसकी लिंक निम्न दी हुई है |   
   
दलित कई सौ सालों से समाज की विपरीत व्यवस्था का शिकार होता आ रहा था | जिस वर्ण व्यवस्था की स्थापना समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए की गई थी ,वही व्यवस्था कब जाति में और जाति से उपेक्षा, घृणा, द्वेष, अछुतपन आदि में परिवर्तित हो गई पता ही नही चला था | एक समाज सवर्णों, क्षत्रियों, वैश्यों  का था तो दूसरा समाज उपेक्षितों, पीड़ितों, अछुतों, दलितों का था | समाज में घोर विषमता व्याप्त थी | पहले वर्ग के पास सारी सुख सुविधाएँ थी | वे पढ़े लिखे थे | उन्हें समाज में मान सम्मान का दर्जा था | वहीं दूसरा समाज दुःख, निराशा, दरिद्रता, अभावों के गर्त में पड़ा हुआ था | वे अक्षर ज्ञान से कोसो दूर थे | उन्हें जान बुझकर अक्षर ज्ञान से दूर रखा गया था | वे नवाबों, जमीदारों, काश्तकारों, सवर्णों के अन्याय-अत्याचार के शिकार थे | वे गुलाम तो न थे | पर इस वर्ग के लिए वे पर्मनंट गुलाम ही थे | उनका प्रत्येक क्षेत्र में शोषण हो रहा था | समाज में उनका स्थान जानवरों से भी बदत्तर था | वे मानो मुर्दा ही थे |......पूरा आलेख पढने के लिए यहाँ चटकारा लगायें 

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