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श्रेष्ठ कौन ?

                                                                                                                             डॉ.अनीता रावत
गुरु द्रोणाचार्य
राजकुंवरों के गुरु
वन्य वीथिका से परे
उस बड़े वन-प्रांतर में
दे रहे थे शस्त्र ज्ञान
सभी थे वहाँ
अर्जुन-भीम-नकुल-सहदेव
और युधिष्ठिर से गुणवान
उसी पल
वीथिका से आता हुआ
दिखाई दिया एक नौजवान
पास आया शीश झुकाया बोला
गुरु ! मैं हूँ एकलव्य भील कुमार
मुझे भी दे शस्त्र ज्ञान
बनाले अपना शिष्य
गुरु के लिए सब समान
गुरु हँसे
सब समान नहीं रे नादान
तू भील पुत्र ,मै राजगुरु
तुझे कैसे दू विद्या दान
गुरुदेव ! भील पुत्र हूँ तो क्या
नहीं किसी से कम प्रतिभावान
न कम किसी से बलवान
होगा पर राजपुत्र तो नहीं
और जो राजपुत्र नहीं
उसे राजगुरु कैसे दे ज्ञान
मुर्ख ! क्या तू चाहता हैं
गुरु राज मर्यादा त्याग दे |
एकलव्य हँसा
गुरुदेव ! आप मुझे शिष्य कहे न कहे
यह आप ही जाने |
किन्तु अब आप मेरे गुरु हुए ,
आप माने न माने
एकलव्य चला वन प्रांतर में
गुरु प्रतिमा का स्थापन कर
सर-संधान करने लगा
धीरे-धीरे एक महान धनुर्धर
पनपने लगा |
छेदन किया |
गुरु और शिष्य का अभिमान
भेदन किया |
बानों से अबुध्द मुख
दौड़ता देख स्वान
चिंतातुर ठेस खा गया स्वाभिमान
बोल हैं कौन ? मेरी विद्या का ज्ञाता
जिसका लक्ष्य भेदन अचूक
कुरु-पांडु कुमार सभी थे मूक
धनुर्धर ! अर्जुन से भी बड़ा धनुर्धर
सोचकर आचार्य घबराये
कुमारों के साथ उस वन्य वीथिका तक
वेग से चले आये |
देखा अर्द्ध-उन्मीलित नयन कोई
सर संधान कर रहा हैं ,
मेरी प्रतिमा रख कर समक्ष
गुरु मान रहा हैं |
देखूँ तो गुरु दक्षिणा मांग कर
देता भी है या नही कौन विज्ञ हैं ,
क्या मांगू ?
दाहिने कर का अंगूठा
कट गया तो प्रत्यंचा न खीच पायेगा |
सर-संधान न होगा तो
धनुर्धर न कहलायेगा ,
बोले वत्स |
मेरे शिष्य हो ?
आचार्य आपकी प्रतिमा को
गुरु मानता हूँ
आपका ही शिष्य हूँ ,
बस इतना जानता हूँ ,
बोले ! ऐसा लक्ष्य भेदन
गुरु दक्षिणा लूँगा ,
मांगिये आचार्य
प्राण देकर भी पीछे न हटूंगा
प्राण की नहीं मुझे अभिलाषा
दाहिने हाथ का अंगूठा
गुरु दक्षिणा का विधान पूर्ण करो
मन ही मन हँसा एकलव्य
जान गया गुरु का यह मोह
अविचलित हो कर उसने काट दिया अंगूठा
न दुःख, न शंका, न कोई विद्रोह |
गुरु द्रोण बोले वत्स ! तुम धन्य हो
गुरु भक्ति में तुम श्रेष्ठ हो ,
अनन्य हो ,
फिर मुस्कुराये अब अर्जुन ही
श्रेष्ठ धनुर्धर रहेगा ,
अंगुष्ठहीन एकलव्य को
कौन श्रेष्ठ कहेगा
गुरु के अधरों पर हास्य रेखा
नयनो में उल्हास देखा ,
हँसा एकलव्य
श्रेष्ठ तो मैं हूँ गुरुदेव
आप भी मेरा लोहा मान गये ,
अंगूठा रहेगा तो, अर्जुन पर भरी पडूंगा
यह भेद भी जान गये ,
मैं सदा कहलाऊंगा श्रेष्ठ धनुर्धर
श्रेष्ठ शिष्य भी
एकलव्य जैसा महान शिष्य का बलिदान
इतिहास सदैव याद रखेगा ,
द्रोणाचार्य जैसे स्वार्थी गुरु को
इतिहास क्या कभी क्षमा करेगा |


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