संघर्ष की जमीन
- लालित्य ललित
डॉ0
सुनील जाधव जमीन से जुड़े रचनाकार हैं। इनकी कहानियों की रचना जमीन
से जुड़े रहने का परिणाम है। डॉ0 जाधव जमीन की बात जमीन की
शब्दावली में लोक की शब्दावली में, आंचलिक शब्दों की सोंधी
खुशबू के साथ कहानियों में परोसते चलते हैं। हमारा देश बहुत विशाल है। विशाल भूखंड,
विशाल जनंसख्या के बीच विभिन्न भाषा-भाषी समाज इस देश की पहचान है।
भारत के उत्तर-दक्षिण-पूरब- पश्चिम की अपनी विशिष्ट पहचान रही है। इस पहचान का
कारण भाषा, वेशभूषा, खानपान, रहन-सहन, पर्व-त्योहार, परंपराएँ,
संस्कार आदि हैं। डॉ0 जाधव भारतवर्ष के
महाराष्ट्र से अपने जनसमाज की गतिविधियों का बड़ी ही तन्मयता से जीते हुए
रचनात्मकता में ढालने की सफल कोशिश कर रहे हैं। साहित्य का एक अध्येता होने के
नाते कहें अथवा साहित्यप्रेमी होने के नाते कहें - जनसमाज की गतिविधियों को कहानी
में ढालकर हिंदी के विशाल पाठक समुदाय को इनसे परिचित कराने की एक छोटी ही परंतु
महत्वपूर्ण कोशिश के रूप् में इस कहानी संग्रह का स्वागत किया जाना चाहिए।
यह कहानी संग्रह एक
समाज विशेष के जीवन संघर्षों से हम सबका साक्षात्कार कराता है। इस संग्रह में कहने
को मात्र ग्यारह कहानियाँ है किंतु इनमें अपने समय का पूरा सामाजिक यथार्थ
कहानीकार ने प्रस्तुत कर दिया है। लोक की कथा में जब लोकभाषा के शब्दों का प्रयोग
किया जाता है तो लोकभाषा जो लोककथा की ताकत होती है, ही
कभी-कभी अभिव्यक्ति संप्रेषण के स्तर पर इसकी सीमा के रूप में भी चिह्नित की जाती
है। बावजूद इसके लोकभाषा का अपना एक अलग ही आनंद होता है।
इन कहानियों में पाठकों को एक-एक
वाक्य की ‘थीम लाइन’ मिलेगी। इन ‘थीम लाइनों’ को पढ़कर आपको हिंदी कथा सम्राट मुंशी
प्रेमचंद की याद अवश्य आएगी। पहली ही कहानी ‘गोधड़ी’ की आखिरी पंक्ति दृष्टव्य है -
‘‘बेटा ! बंजारा स्वाभिमानी और परिश्रमी होते हैं।’’ इस कहानी संग्रह को पढ़ते हुए
आपको संघर्षशील समाज और लेखकीय सरोकारों की ठसक से अच्छी तरह साक्षात्कार होगा।
इसी कहानी (गोधड़ी) के आरंभ में जिस समाज का चित्रण किया गया है उसे पढ़ने के बाद आप
समझ सकते हैं कि कहानीकार की कथा भूमि क्या है, कहाँ है।
सारजाबाई औरत का एक जो बहन-भाई हैं की माँ की मृत्यु के उपरांत उसकी संघर्षगाथा को
कहानीकार इन शब्दों में प्रकट करता है - ‘‘माँ जंगल से सूखी लकड़ियाँ, गोंद इकट्ठा कर शहर जाकर बेच आती थी जिससे झोपड़े में अनाज आता था ... सबके
पेट की आग को शांत किया जाता था वह बड़ी कर्मठ परिश्रमी स्त्री थी। अपने पति के देह
त्याग के बाद सने ही घर की सारी जिम्मेदारी संभाल ली थी। घर में एक ही रोटी बनती
थी वह भी बाजरे की ...।’’
सात सदस्यों के परिवार में एक रोटी,
वह भी बाजर की। जी हाँ, यह स्मरण रहे कि यह
हमारे ही समाज की सच्चाई है कोई अतिरेक नहीं। जब हम और आप इन कहानियों को पढ़ते हुए
उसमें डुब रहे होंगे तब भी उसी संघर्ष को जी रहे होंगे। फिर भी उस समाज की हकीकत
यह है कि ‘‘सभी ने सीख लिया था। एक रोटी में पेट भर खाना भूख को कभी अहसास न दिलाना
कि उसके बिना हम नहीं जी सकते।’’ संघर्षों की इस जमीन का यथार्थ यह है कि - ‘‘यहाँ हर रोज भूख से जंग
होती थी। कोई हारता तो कोई जीतता था। हार और जीत को जीत ही मानने के बाद उनके पास
कोई दूसरा रास्ता भी तो नहंी था। एक रोटी में सात लोग खाते थे। कई बार पानी में
घोले हुए सत्तू को पीकर दिन निकालने पड़े थे।’’ जब जीवन ‘दिन निकालने’ का पर्याय बन
जाये तो ‘गोधड़ी’ और ऐसी अनेक कहानियों की रचना की जमीन तैयार होती है। डॉ0 जाधव इसी जमीन पर बड़ी दृढ़ता से खड़े हैं और उस समाज का नग्न यथार्थ हमारी
आँखों के सामने रख रहे हैं। इस अदम्य साहस और जिजीविषा का मैं अभिनंदन करता हूँ।
इस संग्रह की कहानियाँ जीवन की ऐसी-ऐसी सच्चाइयों से रू-ब-रू कराती हैं जिन्हें
पढ़ते हुए पाठकों की आँखे हैरत से फटी रह जाएंगी। इस दृष्टि से इस संग्रह के
प्रकाशन के लिए एक लेखक निश्चय ही बधाई का हकदार है। मैं संग्रह की कहानियों को
पढ़ते हुए भरे मन से उन्हें बधाई देता हूँ, और उम्मीद करता
हूँ कि भविष्य में भी वे इसी तरह हिंदी के विशाल पाठक समाज को समाज की सच्चाइयों
से, संघर्षों से इसी तेवर के साथ परिचित कराते रहेंगे।
हमारे समाज की जो विसंगतियाँ है उसे
कहानीकार ने बहुत करीब से देखा, भोगा और जिया है।
अनुभव के समुद्र से मंथन के उपरांत जो कुछ भी उसने हासिल किया है। वह अपने पाठक
समाज के लिए इनकी कहानियों में प्रस्तुत कर दिया है। अनुभव सागर से प्राप्त इस
सामग्री में क्या कुछ ग्राहय और क्या कुछ त्याज्य, इसका
फैसला पाठक ही करें तो बेहतर है। अत: इस मुद्दे पर मेरी टिप्पणी अनावश्यक है।
परंतु इतना अवश्य कहूँगा कि समाज में जो वह कैसा है और उसे क्यों ऐसा ही रहना
चाहिए। इन सवालों से आपको ये कहानियाँ अवश्य जूझने पर मजबूर करंगी जो है उससे
बेहतर की तलाश की भूख जगाती इन कहानियों की सार्थकता यही है कि समाज से मिले अपमान,
जलालत भरे जीवन की अनुभूति की अभिव्यक्ति इससे बेहतर नहीं हो सकती।
‘मैं बंजारे का दोस्त’
कहानी में अस्पृश्यता से उपजे दर्द को कहानी में प्रकार पिरोया गया है कि इसे पढ़ते
हुए सहृदय पाठक की आंखें बार-बार नम हो जाती है। कहानी का आरंभ ही पाठकों को
आकर्षित करता है - ‘‘उस दिन मुझे अहसास हुआ अछूत होने का दर्द क्या होता है। दलित,
आदिवासी न जाने कब इस दर्द को रहते आ रहे हैं। उनके शरीर और मन में
कितनी यातनायें, पीड़ाओं को सहा है।’’ ये यातना पीड़ा संघर्ष
ही सृजनशील की आधार भूमि के रूप में दृष्टिगत होता है। डॉ0 जाधव
संघर्ष की जमीन के रचनाकार हैं। हमें संघर्ष को जीवन का पर्याय बनाने वाले ऐसे
कहानीकार पर गर्व होता है।
इस संग्रह की कहानियाँ
आपको लोकभाषा की खुशबू के साथ-साथ मानव धर्म का भी स्मरण कराएँगी। एक तरफ यदि लोक
की भाषा का आनंद है तो दूसरी तरफ युवा मन की कथा के रूप में ‘मिस्टेक’ कहानी आपको
एक अलग ही दुनिया में ले जाएगी। यहाँ भी संघर्ष है किंतु यह संघर्ष अन्य कहानियों
के संघर्ष से थोड़ा अलग है। मुझे उम्मीद है कि हमारे समाज की विसंगतियों का
साक्षात्कार करती इन कहानियों को पाठक वर्ग खुले मन से स्वीकार करेगा और यह संग्रह
कहीं-न-कहीं हर संघर्षशील पाठक का अपने जीवन संघर्ष की कथा-सा प्रतीत होगा। इस
कहानी संग्रह के लिए डॉ0 जाधव को इस उम्मीद के साथ अशेष
शुभकामनाएँ प्रेषित कर रहा हूँ कि उनकी कलम से हमें आगे की एक से बढ़कर एक रचनाएँ
पढ़ने को मिलती रहेंगी।

टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें