१] सुनी परते
क्या कुछ नहीं लिखा जाता
दिल पे अपने -अपने ?
कागज का पन्ना भर गया
होता तो बता देते तुमको ,
आग से चलकर आने के बाद भी
पानी का डर सताएं बैठा हैं हम को |
दिल का टुकड़ा दिया नहीं जाता |
हर समय शोर सुनता तो हूँ दुनिया का ?
शोर घर का 'सुनना 'अच्छा नहीं लगता-
शहर का मन-मुटाव सहा नहीं जाता ,
दूर इतने चले आये हैं
दिल से भुला नहीं जाता |
मानता हूँ बहुत ऊँची भरी हैं ,उड़ान ,
पर आस्था के पंखो में नहीं हैं 'थकान'
|
आज भी घर का आंगन ,
एक नन्हे विश्वास के साथ याद आता हैं |
दिल पर पत्थर रख करके
जीने से क्या होगा ?
सुनी परते भुलाई तो नहीं जाती ?
२] अनजाने राही
हम साथ-साथ हैं दोनों
जैसे उजड़े जंगल में दो वृक्ष ,
जकड़े हुए अपने-अपने अस्तित्व में
आनंद के खोज में अजनबी राही बनकर |
धुप और बारिश का अंदाजा नहीं हैं
आंधी और तूफान में खो गया बचपन ,
एक दूसरों को खोजने में
साँस-साँस बिखरती चली जा रही हैं ,
समज नहीं पा रहाँ हूँ कि
किन तारों की खोज में
हम भटक रहे हैं अनजाने राही बनकर |
रोजमर्रा की जिन्दगी ने श्वासों को रोक रखा हैं ,
सरगम ही उस बासुरी की
खोज कर सकेगा |
जिसके छेदों से गुजरकर श्वास
संगीत बना आकाश की
तारों को अपना ही होगा |
लम्बी सैर पर जो जाना हैं
अपनेपन में लुट जाना हैं ,
राहीं बनकर दूसरों के ,
आस्था - विश्वास को बनाये रखना हैं |
विजयसिंह ठाकुर ,नांदेड
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