वह अपना घौसला ढूंड रही थी | उसने
अपना घौसला बड़े जतन से और प्यार से तिनका-तिनका चुन-चुनकर बनाया था | घौसले के हर
एक तिनके में उसका परिश्रम समाया हुआ था | उसने अपने जीवन का एक-एक अमूल्य पल उसके
निर्माण में दिया था | आनेवाले नन्ने आहट के लिये, बड़े उत्साह से आनंद और उल्हास
के साथ, वह घौसला बना था | उसने कई पेड़ों में से उस पेड़ का चयन किया था | उसने
घौसला बनाने के लिये कई पेड़ों को जाँचा था | अच्छी तरह से परखा था | एक-एक पेड़,
एक-एक डाली वह देख आई थी | पर उसमें उसे कोई पेड़ रास न आया था | उसने देखा था,...
नीम का पेड़, बबुल, बादाम, नारियल, अमरुद, आम, जास्वंद, स्वास्तिक, अनार, करियापाक,
सीताफल, रामफल आदि | कई पेड़ों को उसने नकार दिया था | कहीं ज्यादा शोरगुल था | तो
कहीं बल्ब का तीव्र प्रकाश था | तो कहीं घौसले के लिए स्थान सुरक्षित न था | पर
उसने जिस वृक्ष का चयन किया था | वह सुरक्षित भी था | और रात में उस डाली पर
अँधेरा भी रहता था | और शान्ति भी थी | सो उसके होनेवाले बच्चों के नींद में खलल
का सवाल ही नहीं पड़ता था | उसने हमारे घर के आँगन में पश्चिम दिशा की और स्थित
जामून के वृक्ष का चयन किया था |
वह जामून का वृक्ष हमारे आँगन में
अपने आप उग आया था | उसे लगाया नहीं गया था | बल्कि एक बार कहीं से वह जामून खाने
के लिये लाया गया था | जामून का आकार बड़ा था और वह मीठे एवं रसीले थे | मुँह में डालों तो ऐसे ही पघल जाये | उस दिन
खरीदे हुए जामून का खूब लुफ्त उठाया गया था | एक-एक जामून खूब मजे ले ले कर खाया
गया था | और गुट्लियों को आँगन के पश्चिम दिशा की ओर फेंका गया था | वर्षा हुई थी
| और एक दिन उस गुटली में से एक नन्ने से अंकुर ने जन्म लिया था | वह धीरे-धीरे
बड़ा हो रहा था | पहले ऊँगली भर था | फिर एक बालिश [बिलांग] का हुआ | आगे पैरों तक
फिर कमर तक, कंधो तक और फिर हमसे भी बड़ा हो गया था | हम घर में खुश थे कि बड़ा हो
कर यह पेड़ हमे वैसे ही मीठे, रसीले जामून देगा | सो उसके लिये उसकी देख भाल भी
करना पड़ा था | कई बार बकरियों ने उसके पत्ते खा लिये थे | तो कई बार गाय ने उसका
सिरा तोड़ दिया था | एक बार तो तूफान में वह पेड़ मरते-मरते बच गया था | उस दिन मैं
बड़ा दुखी हुआ था | अब वह पेड़ दो भागों में बंट गया था | उसमें से दो शाखों ने जन्म
लिया था | दोनों भी आपस में जब बड़े हो रहे थे | तब मानो लग रहा था कि वे आपस में
स्पर्धा कर रहे हो | अब पेड़ छह साल का हो गया था | और उसे पहली बार जामून लग रहे
थे | उसे देख कर बड़ी प्रसन्नता हुई थी कि हमारे पेड़ का जामून ..हमारा अपना जामून |
कुछ अलग ही बात थी उस दिन | जब वह दस साल का हुआ था | तब उसने अपना आकर विशाल रूप
में ग्रहण कर लिया था | वह गली में अपनी छाप छोड़ रहा था | सबकी नजरें उस पर पड़ रही
थी | जब भी वह मीठे रसीले जामून से लद जाता तो हर आने जाने वालों को अपनी ओर
आकर्षित करता था | वह था ही ऐसा कि उसे देख कर अच्छे अच्छों के जबान से लार टपक
जाये | ऐसे में पक्षी भला कैसे इस पेड से अच्छुते रहते | कई प्रकार के पक्षी अतिथि
बनकर जामून खाने के लिए आते थे | हमने भी उनका स्वागत ही किया था | कभी उन्हें
परेशान नहीं किया था | वे जामून खाते और अध खाये जामून नीचे फ़ेंक देते थे | या
गुट्लियाँ | एक बार तो बंदरों की टोलिने जामून के वृक्ष पर आपना डेरा जमा लिया था
| उन्होंने कुछ ही पलों में पेड़ के आधे जामून खत्म कर दिये थे | कुल मिलाकर
पशु-पक्षी, जानवर, इंसान सबको वह वृक्ष बहुत प्रिय था |
उस छोटी-सी चिड़िया को हमारा यह
जामून का वृक्ष भा गया था | सो उसने वहीँ डेरा जमा लिया था | वृक्ष पत्तों के कारण
घना और छायादार था | गर्मियों में तो वह तेज धुप से रक्षा करता था | उसकी छाया में
हम अक्सर बैठा करते थे | क्योंकि गर्मियों में बिजली गुल होने पर भीतर भीषण गर्मी
होती थी | यहाँ शीतलता महसूस होती थी | सो बाहर आंगन में जामून की छाया में बैठक
जम जाती थी | और इस बहाने से कई विषयों पर बातें हो जाती थी | एक बार जब मैं बाहर
बैठा था | तब जामून के पेड़ को नीचे बैठे-बैठे निहार रहा था | मैंने देखा कि एक छोटी-सी चिड़िया पेड़ की एक शाख
के एक डाली के पत्ते के नीचे घौसला बना रही थी | वह अपनी नन्नी चोंच में न जाने
कहाँ-कहाँ से बड़े करीने से बिलकुल एक ही जैसे तिनके ला ला कर अपने घौसले में पिरो
रही थी | देखते ही देखते दो दिनों में उसने अपना पक्का घौसला बना लिया था | जैसे
ही घौसला बनकर तैयार हो गया था | वह भीतर चले गई थी | उसने भीतर से अपनी गर्दन
बाहर निकाली और बाहर का दृश्य देखने लगी |
वह उस समय बेहद खुश थी | वह कोई गीत गुनगुना रही थी | हवायें भी मधम गति से चल रही
थी | ठंडी हवा का स्पर्श उसे और मुझे दोनों को पुलकित कर रही थी | उस दिन मैं भी
उसकी ख़ुशी में शामिल था | मुझे भी बेहद प्रसन्नता हुई कि नन्नी सी चिड़िया ने हमारे
आंगन में अपना घौसला बना लिया था | यह खुश
खबरी मैंने बच्चों की तरह अपने घर में सब को सुनाई थी | उस दिन बिलकुल मैं बच्चों
की तरह ही तो खुश था | अब रोज नन्ने चिडिया की मधुर आवाज सुबह श्याम कानों में संगीत की भांति गूंजने
लगी थी | रोज उस चिड़िया की दिनचर्या को निहारना मेरा प्रतिदिन का एक हिस्सा बन गया
था |
एक दिन वह जामून के पासवाले स्वास्तिक
के पेड़ पर एक डाली से दूसरी डाली पर फुदक रही थी | उसमें भय मिश्रित व्याकुलता
साफ-साफ नजर आ रही थी | घौसला अब अपने स्थान पर नही था | घौसला अब
गायब हो चूका था | जीस डाली पर उसने बड़े जतन से घौसला बनाया था | उस दिन वह समूची
डाली ही गायब हो चुकी थी | घौसले को अपने स्थान पर न पा कर वह अपनी छोटी सी चोंच
से जोर-जोरों की आवाज कर रही थी | उस दिन छोटी सी जान से ऐसी आवाज बाहर निकल रही
थी कि उसे सुनने वाले का हृदय भी पिघल जाये | उसकी आवाज में क्रन्दन था | दुःख था
| उसकी आवाज सुनकर उसकी मदत के लिये तुरत दौड़ कर जाने की इच्छा हो रही थी |
ची-ची-ची-ची
ची-ची-ची-ची
की आवाज सारें वातावरण
में छा गई थी | मानो वह चीख –चीख कर कह रही हो कि ,
‘’मेरा घौसला कहाँ हैं ?
कहाँ है मेरा घौसला ? यहीं तो था मेरा घौसला,
आखिर कहाँ चला गया ? किसी ने देखा मेरा घौसला ? क्या हुआ मेरे घौसले के साथ ? कोन
उठा ले गया मेरे घौसले को ? कितने प्यार से बनाया था, मैंने अपने बच्चों के लिए |
घौसले में मेरे दो अंडे थे | जल्द ही उन अंडों से दो नन्नी-नन्नी चिड़िया बाहर आने
वाले थी | अभी उन्होंने इस दुनिया में कदम भी नही रखा था | ‘’
उसके मन-मस्तिष्क में
भांति-भांति के विचार कौंद रहे थे | वह बुरी तरह से भयभीत थी | सशंकित थी कि कहीं
कुछ अनिष्ठ तो नही हो गया | उसका हृदय तेज गति से धडकने लगा था | उसके मन में
रह-रह कर बुरे बुरे खयाल आ रहे थे कि कहीं किसी ने मेरे अंडे को ...
’’ नही-नही ऐसा नही हो
सकता , मैं ऐसा सोच भी कैसे सकती हूँ | कुछ नहीं हुआ मेरे अण्डों के साथ |’’
सोचते-सोचते उसका दिल
बैठा जा रहा था | बहुत समय तक वह क्रन्दन करती रही थी | पेड़ पौधे भी मानों कुछ समय
के लिए स्थिर हो गये थे | अचानक हवा भी बंद हो गई थी | वातावरण में अजब सी शांति
छाई हुई थी | सिवाय उसके दिल को चिर देंने वाली आवाज के ..| सहसा वह कुछ सेकण्डो
के लिये कहीं उड़ गई थी | अब की बार उसके साथ एक चिड़िया साथ में आ गई थी | शायद वह
उसकी आवाज को सुनकर आ गई थी | उसका हालचाल पूछ ने के लिए | उसने क्रंदन करती
चिडिया से पूछा था |
‘’ क्या हुआ बहन ,ऐसे
क्यों रो रही हो ? क्या कोई दुखद घटना तुम्हारे साथ हुई है ?’’
नन्नी चिड़िया ने जवाब
स्वरूप कहा था |
‘’बहन, क्या बताऊँ
तुम्हें | मैंने बड़े जतन से इस पेड़ की डाली पर घौसला बनाया था | उसमें मेरे दो
अंडे थे | कुछ ही दिनों में नन्नी चिड़िया उन्ह अण्डों से बाहर आनेवाली थी | वह डाली और घौसला दोनों गायब हो गये है |’’
नन्नी चिड़िया उड़-उड़ कर वह
स्थान दूसरी चिड़िया को बता रही थी | जिस स्थान पर वह घौसला हुआ करता था | अब वहाँ
कुछ भी नही था | उसके इस अवस्था को देख कर मेरा मन बहुत व्याकुल हो रहा था | दूसरी
चिड़िया उसे धीरज बंधा रही थी | कि सहसा नन्नी चिड़िया की नजर जिस शाख से डाली तोड़ी
गई थी वहां के छोटी सी टहनी के पत्तों के बिच में बने घौसले पर पड़ी | उसने गर्दन
टेडी कर उस घौसले की और देखा तो उसके निराश हृदय में एक आशा की किरण ने जन्म लिया
था | उसने अपने नन्ने पंखों को फैलाया और पलक झपकते ही घौसले के पास पहुँच गई | पहले-पहल उसने घौसले को दूर से ही निहारा
था | उसने घौसले को गौर से देखा | वह घौसला उसके घौसले जैसा दिख रहा था | उसमें मन
में कुछ शंका के भाव उत्पन्न हुए थे | वह सोचने लगी कि ,
‘’क्या यह घौसला मेरा है
? दिखता तो मेरे घौसले जैसा है ..पर ...नहीं-नहीं ,जहाँ मेरा घौसला था ,वहाँ तो अब
कुछ भी नहीं |’’
वह वापस दूसरी चिडिया के
पास लौट आयी थी | उसने दूसरी चिड़िया को बताया था पर .. उसके मन में पुन: वही
प्रश्न उत्पन्न हो रहा था |
‘’मेरा घौसला वहाँ था |
पर यह घौसला किसका है ?’’
ऐसे में और एक चिडिया
उड़ते हुए वहाँ पर आई थी | उसे भी सारा वृतांत सुनाया गया था | सहसा उसने घौसले की
ओर इशारा करते हुए उस चिडिया से पूछा था ,
‘’ बहन, कहीं यह घौसला
आपका तो नही है?’’
उस चिड़िया ने इंकार कर
दिया था | उसने बताया था कि उसका घौसला तो अन्य पेड़ पर है | वह उसकी आवाज सुनकर
दौड़ी चली आई थी | उसने कुछ सोचा, यहाँ तो सिर्फ मेरे अकेली का घौसला था | सिवाय एक
खाली पड़े घौसले के.. | पर हो सकता है ,किसी और चिड़िया ने घौसला बनाया होगा | जिसकी
खबर मुझे न लगी हो |
‘’नही-नही कोई चिड़िया
यहाँ घौसला बनाती तो मुझे अवश्य पता चल जाता |’’
वह समझ नही पा रही थी कि
उसे खुश होना है या दुखी होना है | वह द्वन्द्वात्मक स्थिति से गुजर रही थी | उसका
मन अस्थिर था |
जिस डाली पर उस चिड़िया का घौसला
बना था | वास्तव में उस डाली को तोडा गया था | क्योंकि जामून की उस डाली के कारण
उस पेड़ के साथ ही बड़े हुए स्वास्तिक के पेड़ का आधा हिस्सा सूर्य की किरण न पहुँच
पा ने के कारण सुख गया था | जामून की उस डाली ने स्वास्तिक के उस पेड़ पर पड़ने वाले
सूर्य की रौशनी को रोक दिया था | सूर्य की रोशिनी के बगैर किसी भी पेड़ का अधिक
दिनों तक जीवित रहना कठिन होता है | इतना ही क्या मनुष्य का भी बिना सूर्य के अधिक
दिनों तक जीवित रहना मुश्किल हो जाता है | फिर भी स्वास्तिक तो एक फूल का पेड़ था |
स्वास्तिक और जामून की आयू लगभग एक ही थी | स्वातिक की वृद्धी एक समय के उपरान्त
रुक गई थी | पर जामून का पेड़ तो उस से कई गुना ऊँचा हो चूका था | दोनों मानो बचपन
के सखा थे | पर एक सखा ऊँचा था तो दूसरा बौना था | फिर भी उसके सौन्दर्य में कभी
कमी नही आई थी | क्योंकि इस जाति के पेड़ की उंचाई कम ही होती है | स्वास्तिक के
पेड़ की ऊंचाई लगभग दस फिट थी | वह अब प्रोढ़ हो चूका था | उस का तना मजबूत था |
मानो कसा हुआ शरीर जैसा हो | इस पेड़ पर सफेद फूल जब खिलते तो एक अलग ही समा बन
जाता था | उसकी महक तो नही होती थी पर उन फूलों का प्रयोग पूजा में किया जाता था |
पास ही गुलाब के भी कुछ पौधे थे | उसकी महक आते रहती थी | पर हमे जरा भी मलाल नही
था कि उसमें खुशबूं नही है | पर उस पर जब फूल लद जाते तो दृश्य देखने लायक होता था
| जब फूल एक साथ खिलते तो सारा पेड़ सफेद नजर आता था | और जब उसके फूल मुरझा कर
नीचे गिर जाते तो एक साथ नीचे की जमीन को ढक लेते थे | उपर भी सफेद और नीचे जमीन
भी सफेद ,प्रकृति के सौदर्य को चाहने वालों के लिए तो यह एक उपहार ही होता था |
उसे शब्दों में बयान करना तनिक कठिन सा लग रहा है | इस पेड़ के पुलों का प्रयोग घर
में नित्य पूजा के लिए किया जाता था | इतना ही नही गली के कई लोग इस पेड़ के फूलों
को पूजा के लिए तोड़ कर ले जाया करते थे | कुछ लोग तो मुह अँधेरे ही फूल तोड़ ले जाया
करते थे | जब गणपति उत्सव मनाया जाता है | तो चहू ओर आनंद का वातावरण होता है |
ऐसे में गणपति के पूजा के लिए कई लोग फूल तोड़ कर ले जाया करते थे | वह पेड़ अब केवल
हमारा नही रहा था | बल्कि उसपर कई लोगो का अधिकार बन गया था | कईयों को फूल न
तोड़ने के लिए कहने पर भी वे जबरन आ जाया करते या छिप कर तोड़ कर ले जाए करते थे |
तो कुछ लोग भगवान का नाम लेकर हमारी बोलती बंद कर देते थे | सो अब हमारा पेड़
सार्वजनिक हो गया था | स्वास्तिक का पेड़ हमारे आँगन की शान था | उसे देख कर मैं
प्रसन्नता का अनुभव करता था | उसका सौन्दर्य मन को प्रफुल्लित करता था | उससे
प्राप्त होने वाले आनंद से वह पेड़ हमे इंसान के जैसा लगने लगता था | वह हमारे घर
का ही मानो सदस्य था | जब जामून के उस डाली के कारण पेड़ का आधा हिस्सा सुख रहा था
| तब हमे यह निर्णय लेना पड़ा था कि जामून की उस डाली को ही काट दिया जाये | एक डाली
को तोड़ कर जामून का कुछ बिगड़ ने वाला भी नही था | और बरसात भी चल रही थी, सो कुछ
ही दिनों में तोड़ी हुई डाली के स्थान पर फिर से नये पत्ते आने शुरू हो जायेंगे |
और स्वातिक का पेड़ भी जी जाएगा | पिता जी
ने उस डाली को तोडना शुरू किया था | मैं भूल गया था कि उस डाली पर उस चिडिया का
घोसला है | अब कई दिन हो गये थे | चिड़िया उस घौसले में कभी कभार ही दिखाई देती थी
| सो पिताजी को लगा की वह घौसला खाली ही होगा | वास्तव में खाली घौसला दूसरी डाली
पर था | वे उसे ही खाली घौसला समझ बैठे थे | डाली अब टूट कर नीचे गिर गई थी |
स्वास्तिक के उपर की बाधा अब कम हो गई थी | अब स्वातिक के पेड़ पर सूर्य की रौशनी
पड़ रही थी | स्वातिक अब प्रसन्न था | सुखी
डालियाँ अब जीने वाली थी | हम भी खुश थे कि फिर से स्वातिक का वही सुंदर रूप दिखाई
दने वाला था | टूट कर नीचे गिरी डाली को साफ करना था | उसको उठाकर उसके टुकड़े किये
जा रहे थे | ऐसे मैं मैंने उस घौसले को देखा कहीं इस में अंडा तो नही था | मैंने
उस घौसले को टहनी से अलग किया था | हाथ में लेकर उसे देखा तो क्या था | उसमें एक
अंडा जीवित बाकी था | मैंने पिताजी से कहा पिता जी इसमें अंडा है | तब पिताजी
पछताने लगे थे |
‘’अरेरे , ये मेरे हाथो
से क्या हो गया | ‘’
अब पश्चाताप के दूसरा
उपाय नही था | पर मुझे एक तरकीब सूझी और मैंने पिताजी से कहाँ ,‘’बाबा, इसे हम
जहाँ से डाली तोड़ी गई है | उस स्थान पर टहनी में इसे बांध देते है | काम भी हो
जायेगा और चिड़िया को वापस उसका घौसला भी मिल जाएगा |’’
पिताजी को राहत मिली थी |
वे खुश हो गये थे | पिताजी ने ही उस डाली से उसे ऐसे बांधा की उसे देख ऐसे लगता की
वह पहले से ही वहीँ हो | घौसला अब पेड़ की डाली पर था | फर्क सिर्फ था तो वह यह कि
उसका स्थान बदल गया था |
उसने अपना घौसला लगभग ढूंड लिया था | वह फिर
से उस घौसले के पास गई | गौर से देखने पर पता चला कि वह घौसला उसका ही था | वह
घौसले के द्वार से भीतर गयी | उसने देखा भीतर अंडा सुरक्षित था | कुछ समय तक वह
भीतर बैठी रही थी | उसने गर्दन बहार निकाल कर देखा | फिर उसने सोचा कि ,
‘’यह घौसला तो मेरा हैं |
पर मेरा घौसला यहाँ कैसे आया ?’’
वह परेशान थी | वह कुछ
समझ नही पा रही थी | ऐसे कैसे हो गया ? घौसला अपना स्थान कैसे बदल सकता हैं | न
जाने यह भगवान का कैसा खेल हैं | उसके मन में रह रह कर विचार आने लगा कि ,
‘’आखिर यहाँ क्या हुआ था
? कैसे मेरा घौसला यहाँ आ गया ? ‘’
सोचते सोचते उसे कब नींद
लग गई पता ही नही चला था | जब वह जाग गई
तो पूर्ववत काम पर लग गई थी | हम थोड़ी राहत लेकर बैठे ही थे कि अचानक फिर
से उसी नन्नी सी चिड़िया की ची-ची की दिल को चीरने वाली आवाज आने लगी थी | बाहर आ
कर देखा | पता चला कि उसका एक अंडा जमीन पर गिरने से टूट गया था | यह उसका दूसरा
अंडा था | उसे देख कर पश्च्याताप हो रहा था | आत्मग्लानी से मन बोझिल हो गया था | कुछ
दिनों बाद पेड़ की उसी डाली पर नजर डाली थी | घौसला फटा हुआ था | वह अब खाली था |
चिड़िया उस घटना के बाद से कहीं दिखाई नहीं दे रही थी | ना उसकी ची-ची की आवाज
...ना नन्नी चिड़िया | उसके बिना आँगन सुना लग रहा था | स्वास्तिक फूलों से लद गया
था | गुलाब खिल गये थे | अनार के घने पत्तों में अनार लग रहे थे | कमी थी तो बस उस
नन्नी सी चिड़िया की ..| एक दिन सुबह अनार के पेड़ पर मेरी नजर पड़ी थी | नये
मेहमानों ने अनार के घने पत्तों के बीच एक डाली पर घर बना लिया था | वहाँ
मधुमख्खियों ने अपना छत्ता बना लिया था |
प्रो.डॉ.सुनील
जाधव,नांदेड [महाराष्ट्र]
''मैं बंजारे का छोरा '' कहानी संकलन से
चन्द्रलोक प्रकाशन, कानपूर
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